अवैतनिक प्रकृतिविद् चार्ल्स डार्विन का जीव विज्ञान में अमर होने का सफर
चार्ल्स डार्विन की प्रारंभिक शिक्षा श्रूसबरी में हुई उसके बाद 16 वर्ष की आयु में इन्हें डॉक्टरी की पढाई के लिए एडिनबर्ग भेजा गया, परन्तु इनकी रूचि इसमें नहीं होने से यह वापस अपने शहर लौट आए। इनके इस तरह के व्यवहार से चिंतित पिता ने इन्हें पादरी बनाने का निर्णय लिया और इन्हें कैम्ब्रिज भेज दिया। किन्तु इनकी रूचि इसमें भी नहीं रही और इन्होंने बड़ी मुश्किल से स्नातक की उपाधि हासिल की। किन्तु इस दौरान यह वनस्पति शास्त्री जॉन स्टीवेंस हेन्सलॉव तथा भूगर्भशास्त्री सैज्विक के सम्पर्क में आए जिससे की इनकी रूचि वनस्पति शास्त्र एवं भूगर्भ शास्त्र में बड़ गई। इस कारण से डॉ. हन्सलॉव की संस्तुति पर खोज के लिए निकले हर मैजेस्टिज शिप (एचएमएस) 'बीगल' पर इन्हें एक अवैतनिक प्रकृतिविद् के रूप में यात्रा करने की अनुमति मिल गयी।
27 दिसंबर 1831 डेवेनपोर्ट से यह अपनी यात्रा पर निकले एवं 1836 तक इन्होंने अनेक द्वीपों की यात्रा की। इनके द्वारा की गई पांच वर्षों की यात्रा में इन्होंने जो देखा, सीखा, अनुभव किया उसका विस्त्रत अभिलेखन कर एक विशाल संग्रहित ग्रन्थ के साथ इंग्लैंड आए। इसके बाद दो वर्षों तक इन्होनें बीगल के अपने अनुभवों की एक पुस्तक 'वोयेग ऑफ़ द बीगल' तैयार की।
सन 1838 में चार्ल्स डार्विन ने उस समय के प्रसिद्द अर्थशास्त्री टी.आर. माल्थस के निबंध 'जनसंख्या के सिद्धांत' को पढ़ा जिससे यह काफी प्रभावित हुए। इस सिद्धांत में खाद्य पदार्थों के अंकगणितीय अनुपात में एवं जनसंख्या के ज्यामितीय अनुपात में बढ़ने की बात कही गयी है। इसलिए इस ओर इन्होंने ध्यान दिया की यदि जनसंख्या वृध्दि एवं खाद्य उत्पादन में इतना अंतर् है तो जरुरी है की जंतुओं में भोजन के लिए प्रतिस्पर्धा होगी तथा उत्कृष्ट एवं शक्तिशाली ही अपना अस्तित्व बचा पाएंगे। इसको इन्होंने 'अस्तित्व के लिए संघर्ष एवं उत्तरजीविता' के रूप में प्रस्तुत किया।
जून 1858 में वैलेस ने डार्विन को 'ऑन द टेंडेंसिस ऑफ़ वैराइटिस टू डिपार्ट इंडेफिनिटली फ्रॉम द ओरिजनल टाइप' शीर्षक वाली हस्तलिपि भेजी ओर इसे लिनियन सोसाइटी में प्रकाशित कराने की इच्छा जाहिर की। चार्ल्स लॉयल ओर वनस्पति जोसेफ हुकर की प्रेरणा से डार्विन ने प्राकृतिक चयन सिद्धांत के निष्कर्षों को वैलेस के साथ संयुक्त रूप से प्रकाशन के लिए एक सार तैयार किया। वैलेस का निबंध एवं डार्विन का शोध पत्र 1 जुलाई 1858 को लिनियन सोसाइटी में पढ़ा गया। इसके आठ महीने बाद डार्विन ने पुस्तक प्रस्तुत की जिसका शीर्षक था 'ऑन द ओरिजन ऑफ़ स्पीशीज़ बाई मिन्स ऑफ़ नेचुरल सिलेक्शन' एवं 'द प्रिसर्वेशन ऑफ़ फेवोर्ड रेसेस इन द स्ट्रगल फॉर लाइफ'।
1870 से वैज्ञानिक समाज और साथ ही साधारण मनुष्यों ने भी उनकी इस व्याख्या को मानना शुरू किया। क्योंकि डार्विन ने सुचारू रूप से वैज्ञानिक तरीके से जीवन विज्ञान में जीवन में समय के साथ-साथ होने वाले बदलाव को बताया था।
19 अप्रैल 1882 को इस महान वैज्ञानिक की 74 साल की उम्र में मृत्यु हो गई। परन्तु वे जीव विज्ञान में अमरत्व हो गए क्योंकि इनमें समता, भाईचारा सहअस्तित्व, सहिष्णुता, विश्वशांति,सहयोग आदि भावनाओं का समावेश था जो मानव के लिए कल्याणकारी है। डार्विन की इस मूल प्रासंगिकता का कारण उनके द्वारा की गई पांच वर्षों तक 'बीगल' जहाज पर अवैतनिक प्रकृतिविद् के रूप में की गई यात्रा से है।
वर्तमान समय में भी हम सब को ऐसे कार्य क्षेत्र से अवश्य जुड़ना चाहिए जिसमें हमारी रूचि हो। यदि इन क्षेत्रों में जुड़े रहने के लिए हमें अवैतनिक तौर पर ही कार्य करना पड़े तब भी हमें अवसरों को स्वीकार कर लेना चाहिए। क्योंकि हमारी रूचि के क्षेत्र हमें आसमान की उन बुलंदियों तक पहुंचा सकते है, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होगी। इस बात को हम डार्विन के उदाहरण द्वारा भली-भांति समझ सकते है।
Good
ReplyDeleteThank You.. 💐🙏
DeleteNice
ReplyDeleteThank You... 💐🙏
Deletevery nice.... biography based article....
ReplyDeleteThank You So Much.. 💐🙏
DeleteVery Nice.....
ReplyDeleteThank u
Deletevery nice
ReplyDeleteThank u
Deletevery well...
ReplyDeleteThank U..
Deletenice
ReplyDelete