कविता (Poem)

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 नवोदय की क्रान्ति कहें, या मकर संक्रांति कहें,

दोनों ही प्रकाश की आधार श्रंखला,

ज्ञान का आभास कहें, या सूर्य का प्रकाश कहें,

दिख रहा आकाश में इन्द्र धनुष रंगीला,

पतंग की उंचाई से, ज्ञान की गहराई से,

सज रही है देखो अब धरा वसुंधरा।


आसमां पे छा रहीं, रोशनी जगमगा रहीं, 

सफलता नारी पा रहीं, खुशियां चहचहा रहीं,

पर्यावरण भी सज रहा, देश सतत बढ़ रहा, 

समृद्धता गढ़ रहा, विकास विश्व कर रहा ये विश्व रंगीला।


रंगों का मौसम कहें,या मौसमी सुगन्ध कहें,

फूलों सा समां सज गया, बहार रंगीली।


मीठा बोलों जग कहें, सत्य बोलों रब कहें, 

हर धर्म एक संग है यह संग रंगीला 

पर्यावरण को स्वच्छ बनाओ,देश को अब तुम बचाओ 

यहीं नवाचार यही कृष्ण लीला,

हर धर्म एक हो, हर कर्म नैक हो,

ज्ञान संग विज्ञान हो, सत्यता की शान हो 

मेरा देश सजीला। रंग रंगीला।

-कृष्णा जोशी, इन्दौर, मध्य प्रदेश

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