मीडिया और महिलाएं : वन्दना दवे, भोपाल

महिलाओं की अलग पत्रिका क्यों..?

महिलाओं को लेकर विश्व भर में अनेकों पत्र पत्रिकाएँ निकलती हैं। इनके कंटेंट को देखा जाए तो सालों से वही घिसा पिटा चला आ रहा है। खूबसूरती, फैशन, पति, परिवार, घर, खाना आदि।

अखबारों में भी इन्हीं विषयों के इर्द गिर्द नारी परिशिष्ट लगभग हर अखबार निकालता है। 

अब प्रश्न उठता है कि यदि हम लिंग भेद समाप्त करना चाहते हैं तो क्या महिलाओं की अलग से पत्र पत्रिकाएँ निकालना आवश्यक है ? कोई भी अखबार या पत्रिका पाठकों के लिए होना चाहिए। नर या नारी के लिए नहीं। यदि ऐसा होता है तो पुरूष व स्त्री को लेकर जुगुप्सा की भावना भी धीरे धीरे खत्म होती जाएगी। अकसर देखा गया है कि पुरूष स्त्रियों की पत्रिकाएँ बड़े चाव से पढ़ते हैं। स्त्रियों से जुड़े मुद्दे उनके लिए चटपटे होते हैं। 

अखबार या पत्रिकाएँ आम पाठक के लिए होंगी तो दोनों के व्यवहार या उनकी समस्या को लेकर समान प्लेटफार्म पर बात होगी। इससे महिला पुरुष के बीच रहस्य की दूरी समाप्त होगी और समाज में सहज और स्वस्थ वातावरण निर्मित होगा। 

 स्त्री सौंदर्य के बहुत बङे बाज़ार ने  मीडिया में स्त्री व पुरुष के भेदभाव को बढ़ाया है। वे कभी नहीं चाहते कि औरतें मेकअप की दुनिया से बाहर आकर अपने असली स्वरूप को जाने। इन कम्पनियों से मिलने वाले विज्ञापनों  के कारण मीडिया में स्त्री विशेष पर अलग से सामग्री छापी जाती रही है। मीडिया को स्वहित के बजाय समाज हित में इस सोच को बदलना होगा साथ ही पढ़ी लिखी महिलाओं को भी चाहिए कि वें स्त्रियों पर आधारित ऐसी पत्रिकाएँ लेने से बचें जो सिर्फ पति को खुश कैसे रखें या सास बहू का रिश्ता कैसे अच्छा हो या फिर लिपिस्टिक का कौन सा शेड आपकी सुन्दरता में चार चाँद लगा देगा जैसी बातों से आपके  प्रति अपने कर्तव्य को निभा रहे हैं। 

लड़कियाँ हर क्षेत्र में दखल दे रही हैं। बाहरी जगत से लगातार जुड़ती जा रही है ऐसे में इनके लिए जरूरी है कि ससुराल के परम्परागत तौर तरीकों में बदलाव हो। उसे पत्नी, बहू या अन्य रिश्तों में  बाँटकर उसके व्यवहार को परखा न जाए। रिश्ते थोपने का सिलसिला बंद होना चाहिए। यूँ भी पढ़ाई लिखाई हर रिश्ते को निभाने का सलीका देती है न कि ऐसी पत्रिकाओं में छपे आलेख। एक लड़की का जीवन विवाह के बाद प्रभावित न हो। उसे स्वाभाविक जीवन जीने की स्वतंत्रता मिल सके। इस दिशा में  मीडिया की भूमिका ऐसे माहौल को निर्मित करने में काफी कारगर सिद्ध हो सकती है। स्त्री पुरुष से जुड़े असली मुद्दों पर समान रूप से चर्चा करनी आवश्यक है।

अखबारों की पौरुष वादी सोच गाहे बगाहे नज़र आती है। पत्रकारों द्वारा महिला हस्ती से किए जाने वाले प्रश्न इस माध्यम की संकीर्ण सोच को दर्शाती है।

यदि हम रोजमर्रा के संचार माध्यमों की नज़र से स्त्री को देखें तो वो कमज़ोर, बेबस, पीड़ित या उत्पीड़ित ही नज़र आती है

बड़ा ताज्जुब होता है इस तरह की खबर पढ़ते हुए की मरने वालों में महिला, बच्चे और बुजुर्ग भी थे। इसका क्या मतलब है ये क्या कहना चाहते हैं। क्या औरतें भी बच्चों और वृद्धों के समान कमज़ोर होती है इसलिए उन्हें इनके साथ रखा जाता है। माना कि महिलाओं की शारीरिक बनावट पुरुष की तुलना में नाजुक प्रकृति की होती है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि वें कमज़ोर होती हैं। समय आने पर वें अपनी शारीरिक ताकत का अहसास करा देती है। रानी  लक्ष्मीबाई, दुर्गावती जैसी अनेकों नारियाँ यौद्धा के रूप में इतिहास में दर्ज है।

पिछले ओलम्पिक में हमारे देश की साक्षी, सिंधु, सानिया ने पुरूष प्रधान खेलों में जीत हासिल कर सब को चकित कर दिया था। स्त्री की सबसे बड़ी ताकत उसका मनोबल होता है।

ऐसे ही एक और खबर अकसर पढ़ने में आती है अकेली महिला पाकर वारदात को अंजाम दिया।

इस तरह की खबरें पढ़कर हर महिला को अपने स्त्री होने का भय सताने लगता है उसका आत्मविश्वास कमज़ोर होता है। अकेले पुरुष के साथ भी घटना घटित हो सकती है किन्तु अखबारी नजरिया पूर्वाग्रह से ग्रसित होने से महिला के कमजोर होने को सार्वजनिक स्वीकारोक्ति प्रदान करता है। ऐसे में अपराधियों के हौसले बुलंद होते जाते हैं और वे इस प्रकार के शिकार की फिराक में रहते हैं।

मीडिया को ऐसी खबरें देने से रोकना होगा जो स्त्री को कमज़ोर करती है।

मीडिया की संकीर्णता के कुछ नमूने 

पिछले दिनों न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री माँ बनी। तब पत्रकारों ने उनसे प्रश्न किया कि आप नवजात बच्चे की माँ होने के साथ प्रधानमंत्री जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को कैसे निभाएंगी। इसके जवाब में वहाँ की प्रधानमंत्री ने औरतों में मल्टीटास्किंग जैसी खूबियों की बात कही। ऐसे ही कुछ समय पूर्व  भारत की महिला क्रिकेट की एक पूर्व कप्तान से पत्रकार ने जब यह पूछा कि आप किस पुरुष क्रिकेटर से प्रभावित है तो उसने जवाब दिया आपने कभी किसी पुरुष क्रिकेटर से इस तरह का प्रश्न किया कि वो किस महिला क्रिकेटर से प्रभावित है।

एक ऐसा ही वाकया इन्दिरा गाँधी के साथ भी हुआ था जब उनसे पत्रकारों ने पूछा एक स्त्री होने के नाते आप प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी कैसे निभाएंगी। तब श्रीमती गाँधी ने कहा था हमारे देश में पीएम, सीएम और डीएम होना महत्वपूर्ण हैं। इस पद पर स्त्री है या पुरुष मायने नहीं रखता। कहने का तात्पर्य यह है कि आज का मीडिया भी औरतों  की शीर्ष स्तर पर सामाजिक भागीदारी को सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रहा। इनके लिए वे खबरें ही महत्वपूर्ण होती है जिसमें महिला उत्पीड़न हो। ऐसी खबरों की अखबारों में तादाद इतनी ज्यादा होती है कि लगता है समाज में महिला अत्यधिक असुरक्षित है।

मीडिया को स्त्री के खिलाफ़  हिंसा, दुराचार, दुर्व्यवहार के प्रति संवेदनशील होना चाहिए न की इसे सनसनीखेज बनाकर लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए।

संचार माध्यमों को समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी समझते हुए भूमिका तय करनी होगी व लिंगात्मक भेदभाव से मुक्त लेखनी द्वारा समाज को भी इस कोड से मुक्त करना होगा।


(लेखिका माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक है एवं कस्तूरबा ग्राम महाविद्यालय इंदौर से ग्रामीण सामुदायिक विकास एवं विस्तार से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त है. साथ ही लेखिका स्वतंत्र लेखन में सक्रिय है.)


Comments

  1. बहुत ही बढ़िया आलेख मेम... वास्तविकता में हमें लिंग विभेदन को कम करने पर काम करना चाहिए.. जबकि हम जाने अनजाने इसे बढ़ावा दे रहे है...

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