बेटी का न होना यानि एक नस्ल का खत्म होना है.. वन्दना दवे, भोपाल

 

 

यह बात खेद से ज्यादा खौफनाक है कि हमारे देश में इंसानों की ही एक प्रजाति लगातार कम होती जा रही है और हम फिर भी लापरवाह बने हुए हैं। पुरूषों की तुलना में महिलाओं की संख्या का फासला बढ़ते जाना प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहा है। ये स्थिति उत्तर भारत के कई हिस्सों में काफी दयनीय है। आंकड़ों में देखा जाए तो जीरो से छह वर्ष तक लैंगिक अंतर जहाँ 2001 में प्रति हज़ार 927 था तो 2011 की जनगणना के अनुसार प्रति हज़ार  918 ही रह गया।

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एक लड़की के न होने से केवल एक बेटी का कम होना नहीं है बल्कि वह तो जब किसी दूसरी जगह ब्याह कर जाती है तब उस जगह की आबोहवा, जलवायु, रहन सहन, बोली चाली आदि को भी अपने साथ समेटकर ले जाती है। इस तरह समझा जा सकता है की बेटी की व्यापकता लगभग असीमित है। बेटी के न होने के दुष्प्रभाव हमें तत्काल मालूम तो नहीं पड़ते किन्तु एक अरसे बाद जरूर मालूम होते हैं किन्तु जब तक हम बहुत कुछ खो देते है।
हरियाणा में एक सामाजिक शोध से यह बात परिलक्षित होती है की लगभग तीन दशक पूर्व बेटियों को कोख में मारने का अंजाम अब सामने आ रहा है। लड़कियों की कमी से जूझ रहे इस प्रदेश में युवाओं की लगभग आधी आबादी विवाह की बाट जोह रही है। जिन युवाओं की शादी हो गई है उनमें ढाई लाख बहुएँ केरल, बंगाल, झारखंड, आसाम, मणिपुर, नागालैंड आदि जगहों से आईं हैं। दूसरे प्रदेशों की बहुतायत में लाई गई बहुओं की वजह से हरियाणा अब अपनी पहचान खोता जा रहा है। यहाँ भोजन को लेकर कहा जाता है कि

जहाँ दूध दही का खाना
वहीं है हरा भरा हरियाणा

मगर यहाँ के लोगों को इस प्रिय खाने को भूलने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। अब हरियाणा के लोग चूरमा, चटनी, बिलोया, मक्खन के बजाय इडली, सांभर, तेलपिठा, चोखा, मछली भात आदि खाने लगे हैं। ठंड में बाजरे की खिचड़ी, सरसों की साग और रोटी थाली से नदारद हो गईं हैं।

अनुवांशिकी परिवर्तन

पूर्वोत्तर व अन्य प्रदेशों की लड़कियों से शादी के कारण बच्चों में अनुवांशिक परिवर्तन भी साफ़ दिखाई देने लगे हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 43% बच्चों की लंबाई सामान्य से कम है। 44% बच्चों का वजन भी उम्र के हिसाब से कम है। हरियाणा की पहचान महिला और पुरूष दोनों ही लंबे और बलिष्ठ माने जाते हैं।

सांस्कृतिक व भाषागत परिवर्तन

संगीत नृत्य में हरियाणा की आत्मा बसती है। सांस्कृतिक घालमेल के कारण घूमकर, झूमर, गुग्गा, धाप, चैपइया, फाग, लूर और धमाल जैसे नृत्य ओझल हो जाने के कगार पर हैं

भाषा के मामले में भी इस प्रदेश के लोग आने वाले समय में अपने इस अंदाज़ ए बयाँ को खो देंगे। यहाँ की बोली सहज हास्य पैदा करती है किन्तु अब वह भी शायद धीरे धीरे कहीं गंभीरता के साये में न समा जाए। बाहरी बहुएँ हरियाणवी नहीं सीख पा रही हैं। इस कारण उनके बच्चे माँ की भाषा ही बोल रहे हैं। 


बेटी न बचा पाने की स्थिति में आज हरियाणा तो कल राजस्थान, पंजाब उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश आदि राज्य अपनी पहचान खो देंगे। हालात नहीं सुधरे तो और खराब स्थिति के लिए भी हमें तैयार रहना होगा।

 

(लेखिका माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक है एवं कस्तूरबा ग्राम महाविद्यालय इंदौर से ग्रामीण सामुदायिक विकास एवं विस्तार से स्नातकोत्तर है. साथ ही लेखिका स्वतंत्र लेखन में सक्रिय है.)

 

Comments

  1. Sahi kaha hai.. ek beti ki vyapkta asimit hai ... hmen sirf bate krke nhi balki asl me beti bachaon beti padhaon ke nare ko sakar karna hoga...

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